गुरु पौर्णिमा शिविर, जुलाई २०२४
शिरीष प्रभाकर यावलकर
इंदौर
गुरु माँ के आमंत्रण का हम सबको इंतजार रहता है। जब से पिछले एप्रिल में मेरी शल्यक्रिया हुई तभी से गुरु माँ से मिलने और उनसे आशीर्वाद लेने की इच्छा हो रही थी। ऐसे में जब रिट्रीट की सूचना प्राप्त हुई तो हम दोनों, पति-पत्नी ने तत्काल पहुंचने का निर्णय कर लिया।
१८ जुलाई को हम लोग दोपहर में ही आश्रम पहुंच गये थे, सायंकाल को गुरु माँ के सान्निध्य का अलभ्य लाभ प्राप्त हुआ। एक तो उस समय सदस्य संख्या कम थी और किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम की हड़बड़ी नहीं थी, ऐसे में गुरु माँ से अनौपचारिक वार्तालाप का स्वर्णिम संयोग उपस्थित हो गया।
सायंकाल की बैठक में गुरु माँ के व्यक्तित्व के जो कई अनछुए पहलू देखने का सौभाग्य हमें मिला वो अन्यथा देखने नहीं मिलता क्योंकि कार्यक्रम चलते रहते हैं और व्यक्तिगत सम्पर्क कम हो पाता है।इस बातचीत में हमें गुरु माँ की सरलता, गुरु माँ की सादगी, गुरु माँ की विनोद प्रियता, उनका स्नेह, उनकी निरहंकारिता को नजदीक से अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ। साथ ही उनकी अवलोकन क्षमता, समसामयिक सामाजिक घटनाक्रम पर उनकी पैनी नज़र, उन घटनाओं का आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विश्लेषण, इन सबके साथ हमारे पारिवारिक जीवन में अध्यात्म और धार्मिकता का महत्व और उसका व्यवहार, ऐसे सारे मुद्दों पर उनका मार्गदर्शन, ये ऐसे विरले सत्संग मोती भी मिले ,जिनका अन्यथा मिलना कठिन होता।
अनौपचारिक बातचीत के दौरान ही मैंने गुरु माँ से कलिसंतरणोपनिषद के विषय में पूछा था। क्योंकि ईश, केन, कठ, मुंडक, ऐसे उपनिषदों की चर्चा तो बहुत होती है लेकिन कलिसंतरणोपनिषद की चर्चा कम सुनने को मिलती है। गुरु मां ने रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा कि कल तक प्रतीक्षा करो।
एक तो सद्गुरु वैसे ही करुणा मूर्ति होते हैं, फिर गुरु माँ तो माँ भी हैं, तो यहां करुणा और भी घनीभूत हो गई है । करुणामय गुरु के मन में हम सबके कल्याण के अलावा कुछ नहीं रहता है। बस यही एक भाव ध्यान में रख गुरु माँ ने एक ऐसे उपनिषद को हम सबके विवेचन के लिए चुना कि जिसमें न्यूनतम श्रम में अधिकतम आध्यात्मिक लाभ का आश्वासन है।
कलियुग में अन्नगत प्राण है। वेद, वेदांत, आचार, विचार, संस्कार, धर्म, संस्कृति, मूल्य, सिद्धांत आदि सबका या तो ह्रास होते जा रहा है या उसके प्रति दृढ़ता की कमी दिखाई देती है। फिर उपनिषद नाम ही साधारण भारतीय को बड़ा भारी भरकम लगता है। पता नहीं उसमें क्या-क्या बताया गया होगा? ये ब्रह्म,जीव, माया, जगत, ये सब समझने में बहुत कठिन लगता है। लेकिन दूसरी ओर, दैनंदिन संसार में जो घोर कष्ट और संघर्ष है उसमें से निकलने की छटपटाहट भी सुज्ञ मन में रहती है।
हमारे दूरदर्शी पूर्वजों ने कलियुग के शुरू होने के पहले ही इस ऊहापोह को देख लिया था और मानव कल्याण हेतु उसके उपाय भी आने वाले पीढ़ियों के लिए लिख कर रख दिये थे। कलिसंतरणोपनिषद एक ऐसा ही छोटा किंतु सारगर्भित ब्राह्मण उपनिषद है जिसमें महान संत देवर्षि नारद और ब्रम्हा जी के बीच एक अद्भुत संवाद का वर्णन है। करुणानिधि श्री नारदजी जो कि कलि कारक और कलि तारक दोनों ही हैं, वे प्रभु श्री ब्रह्मा जी से यही सीधा और स्पष्ट प्रश्न पूछते हैं कि कलियुग रूपी घोर सागर से तरने और पार उतरने का उपाय क्या हैं?
श्री ब्रह्मा जी अत्यंत गूढ़, गुह्य और अति रहस्य पूर्ण किंतु अत्यल्प षोडषोक्षर मंत्र बताकर कहते हैं कि बस सर्वत्र, सब समय इस नाम का स्मरण मनुष्य करे और निर्भय हो जाए। वो है
“हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।“
उस तेज: पुंज हिरण्यगर्भ ने बताया कि जो कोई भी इस षोडषोक्षर का आश्रय लेगा वो कलि वैतरणी को बिना श्रम तैर कर पार कर लेगा।
करुणामय गुरु मां ने सनातन ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाकर ये अत्यंत सरल, प्रसिद्ध, व्यावहारिक और उपयोगी मोती हमारे भवरोग पर उपचार हेतु निकाल कर हमें दिया, ये सद्गुरु की हम पर अनंत कृपा है।
दूसरे दिन गुरु पूजन का कार्यक्रम हुआ। अत्यंत भावपूर्ण वातावरण में हम सब ने समस्त गुरु परम्परा और गुरु मां का श्रद्धा पूर्वक पूजन किया। एक अद्भुत आध्यात्मिक उन्नयन की अनुभूति हुई।
किसी भी समारोह का वर्णन मा. मनीष जी के उल्लेख के बिना अधूरा है। आनंद की जो लहरें उनके मन में उठती रहती हैं उससे वो हम सब को सराबोर कर देते हैं। फिर माध्यम खेल का हो या जन्मदिन मनाने का या वेदांत के अनमोल रहस्यों का, हम सब उस आनंद सागर में गोते लगा प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
मनीष जी द्वारा सुनाई गई कहानियों के बिना ये प्रसंग अधूरा रह जाएगा, जब हमारे पौराणिक शास्त्रों और ग्रंथों में उल्लिखित किंतु सनातन, प्रासंगिक और बोधप्रद कहानियों को अत्यंत रोचक, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत कर भारी भरकम सिद्धांतों को सीधे सरल भाव में हम सबके सामने मनीष जी ने रख दिया।
शिविर में कुछ अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं भी अत्यंत उल्लेखनीय हैं। मा.गुरु मां ने जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय का विवेचन किया था और उसकी चतुर्दिक सराहना भी हुई थी, उसी प्रकार श्री रामचरितमानस के एक एक सोपानों का सारगर्भित और अति सूक्ष्म विवेचन लगातार गुरु मां द्वारा किया जा रहा है। सुंदर काण्ड तक तो पूर्व में प्रवचन रिकॉर्ड कर सभी श्रद्धालुओं के लिए उसकी पेन ड्राइव में प्रति जारी की जा चुकी थी। संयोगवश लंका काण्ड पर भी गुरु मां का मार्गदर्शन सम्पूर्ण होकर उसकी मल्टीमीडिया का लोकार्पण इस शिविर में किया गया। मानस के मानसरोवर से श्रेष्ठतम अध्यात्म मोती हंस रूप में गुरु मां ने हमारे समक्ष रख दिये हैं।
प्रत्येक शिविर के दीक्षांत में गुरु मां एक अनुपम प्रासादिक वस्तु स्मृति भेंट रुप में हमें प्रदान करती हैं। आश्रम परिसर में जो सर्वेश्वर मंदिर है, उसमें एक भव्य दीप स्तंभ स्थापित होने वाला है। दीप, गुरु का ही प्रतीक है जो अज्ञान के गहनांधकार रुपी गुहा से बाहर निकलने हेतु साधक का मार्ग प्रकाशित करता है। उसी दीप की लघु प्रतिमा के रुप में अबकी बार गुरु मां ने हम सबको धातु का एक दीपक भेंट स्वरूप दिया। अत्यंत सुंदर, अनुपम और उपयोगी।
कुल मिलाकर आनंद, अध्यात्म, आत्मीयता और अपनत्व से भरपूर होकर शिविर की स्मृतियों में डूबे हुए हम अपने निवास वापिस आए, अगले आमंत्रण की प्रतीक्षा में।
ॐ तत् सत्। श्री गुरु मां के चरणों में निवेदित।