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परमात्मा ही सच्चा गुरू है।

(श्री रामचरितमानस (उत्तर काण्ड) पर प्रवचन)

पुष्पा बगड़िया
तेज़पुर, आसाम

आत्म बोध स्वाध्याय मंडल तेज़पुर द्वारा आयोजित, श्रीमद् भगवद् गीता एवं श्री रामचरित मानस ज्ञान यज्ञ का उद्घाटन आज केदारमल आयुष भवन, संजीवन में समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा दीप प्रज्वलित करके किया गया।

यह हम सब का सौभाग्य था की परम पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी की शिष्या, माँ पूर्णानंद जी की अमॄत वाणी से हम सब कृतज्ञ होंगे।


श्री रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड की व्याख्या करते हुए माँ ने बताया कि श्री राम जी के राज्य अभिषेक के बाद, राम राज्य की स्थापना हो गई। चारों ओर अयोध्या मे सुख, शान्ति और आनंद का वातावरण छा गया। सभी जन अपने कर्तव्य का पालन करते और निर्भय रहते हैं। श्री राम जी नित्य नइ-नइ लिलाएँ कर रहे हैं। उस समय श्री राम जी ने अयोध्या वासियों को बुलाकर उच्च संस्कारों का उपदेश देने का निश्चय किया। सभी गुरूजन, ब्राह्मण, मुनि एवं नगर वासी जब एकत्रित होकर सभा में बैठ गए, तब भक्तों के जन्म मरण के दुखों को काटने वाले - श्री राम जी ने यह वचन कहे, "मैं ममता के वश, या अहंकार से, या अनीति से यह बात नहीं कह रहा हूँ। जो मेरा अनुशासन मानने वाला मेरा भक्त है वही मुझे पसंद है। जो सेवक कर्तव्य परायण होकर मेरी सेवा करता है वही मुझे प्रिय है।"

धर्म शास्त्र हमें संयमित जीवन जीने की कला सिखाते हैं। परमात्मा कभी भी अनीति की बात नहीं कहते। सभी धर्मों में - चाहे ईसाई हो, जैन हो, हिंदु धर्म हो, सब में अनुशासन बताया गया है। हम सनातनी हैं, और सनातन धर्म में ये बातें बतायी गयी हैं -

सत्यं वद।

धर्मं चर।

मातृ देवो भव।

पितृ देवो भव।

आचार्य देवो भव।

अतिथी देवो भव।

इस प्रकार बहुत सारी बातें बताई गयी हैं ।

माँ ने समझाया, कि यदि हमारे विचार में सत्य नहीं है, तो हम सत्य नहीं बोल सकते, सत्य का आचरण नहीं कर सकते और धर्म अनुकूल कर्म नहीं कर सकते। साधारण मनुष्य के लिये उसका पालन बहुत कठिन है। चिंतन, मनन से, विचारों की शुद्धि से, योग साधना से सतत अपने मन को संयमित करें, तभी इसका आचरण हो सकता है। धीरे-धीरे अपने आप को अनुशासित करें।

यह मानव शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। शास्त्र कहते हैं, कि ये देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधन और मोक्ष का द्वार है। चौरासी लाख योंनियों के बाद यह मनुष्य शरीर मिलता है। देवता और पशु योनी भोग के लिये हैं। अपने पुण्य के कारण देवता सुख भोगते हैं और अपने पापों के कारण पशु बनकर दुख भोगते हैं। केवल मनुष्य शरीर में ही कर्म बंधन से छूटने की सुविधा है ।

“येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः।"

"ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति॥“

उत्तर काण्ड में, श्री राम चन्द्रजी अयोध्या वासियों को उपदेश देते हुए बताते हैं, कि मानव शरीर बहुमूल्य है, इसका सदुपयोग ही करें। पशु योनी में बुद्धि प्राकृतिक रुप से व्यवहार करती है, परंतु जब हम मनुष्य योनी में आते है, तब हमारे पास विवेक बुद्धि होती है। हम ‘करें, या ‘न करें' यह विचार हम कर सकते है। हम अपनी गलतियों के लिए काल को और ईश्वर को मिथ्या दोष देते रहते है। मनुष्य योनी में ही अपने विवेक को जाग्रत करके, जीवात्मा परमात्मा तत्व को प्राप्त कर सकता है।

इस शरीर को प्राप्त कर, विषय भोग नहीं करना चाहिए। इस जगत में ही नहीं, स्वर्ग में देवताओं का भी सुख भोग मिल जाए, तो भी अंत में वह दुःख ही देता है। जो लोग अपने मन को विषयों में लगा देते है, उन्हें पता ही नहीं है, कि वें पारस मणि छोड़कर विष ले रहें हैं।

जब ईश्वर की कृपा होती है तब यह मानव शरीर मिलता है। शास्त्र कहतें है कि मनुष्य शरीर तो दुर्लभ है ही, पर उससे अधिक दुर्लभ है मनुष्यत्वं, और मनुष्यत्वं पाकर उससे आगे परमात्मा तत्व की ओर कैसे बढ़े?

ये ईश्वर के अनुग्रह से होगा। ईश्वर अनुग्रह गुरु कृपा से होती है और गुरु कृपा शास्त्र पढ़ने से ही होती है। ईश्वर, गुरु और शास्त्र इन तीनों से ही बेड़ा पार होगा। शरीर जहाज है, भगवान की कृपा वायु है। जिस तरफ़ हवा चली, उस तरफ़ ही जहाज चल पढ़ता है। सद्गुरू कर्णधार है। इन तीनों के सुलभ साधन मिलने से ही भवसागर से तर सकते है।

बार बार श्री रामचंद्र जी नगर वासियों को भाई कहके सम्बोधित करते है। वें कहते हैं, "यदि इस लोक और परलोक में सुख चाहते हो, तो मेरे वचनों को ध्यान से मन लगाकर सुनो। मेरी भक्ति बहुत ही सुखद और सुलभ है। वेद, पुराणों ने भी इसके गुण गाए है। ज्ञान मार्ग दुर्लभ है, इसमे कठिनाई भी बहुत है। मन लगाना कठिन है। अगर किसी ने बहुत कष्ट पाकर निर्गुण का ध्यान करके ज्ञान प्राप्त कर लिया और मन में भक्ति नहीं है, तो ऐसा भक्ति हीन ग्यानी मुझे पसंद नहीं है। निर्गुण निराकार जानते हुए भी सगुण की पूजा करनी चाहिए, और यह भक्ति केवल सत्संग से ही मिल सकती है। जगत में एक ही पुण्य है - मन, वचन और कर्म से कपट त्यागकर गुरु जनों की सेवा करें।

श्री राम चरित मानस में भक्ति और ज्ञान के बारे मे बताते हुए, माँ ने बताया, कि ज्ञान और भक्ति दोनो अलग अलग पठरी पर नहीं चलते। दोनो साथ-साथ चलते हैं। यदी कोइ ज्ञानी है, तो वह अहंकारी हो सकता है, पर जो भक्त है, वह सरल, विनम्र, दयालु और परोपकारी है। भक्ति सरल इसलिए लगती है, क्योंकी हमारा नाता। सीधा भगवान से जुड़ता है। सत् का संग करने से भक्ति प्रकट होती है। भक्ति स्वतंत्र है; किसी प्रकार का अवलम्बन नही लेना पड़ता। ज्ञानीपार्जन के लिए किसी शास्त्र का, गुरू का सहारा लेना होता है। तभी ज्ञान मिलता है। बिना पुण्य के सत्संग नही मिलता और सत्संग भक्ति के द्वार खोल देती है।

अब श्री राम जी प्रजा से कहते हैं, कि शंकर जी के भजन बिना भक्ति नही मिल सकती। ईश्वर तो सबके ह्रदय में है, पर श्रद्धा - विश्वास के बिना वें दिखाई नही देते। भक्ति के मार्ग में न तो योग की आवश्यक्ता है, न यज्ञ, न जप, न तप और उपवास। बस मन का सरल स्वभाव हो और कुटिलता न हो। जो कुछ भी मिले, उसी में संतोष हो। परमात्मा में विश्वास रखकर, उनकी शरण में जाकर, उनपर निर्भर रहकर, संतुष्ट रहकर जीना ही भक्ति है। परमात्मा का विश्वास और परमात्मा का प्रेम दोनों मिलकर ही भक्ति कहलाते हैं। श्री राम जी शंकर जी के भक्त है और शंकरजी श्री राम जी के भक्त है। ब्रह्म ही कल्याण स्वरूप होने के कारण शिव है और सर्वत्र रमण करने के कारण राम है। दोनो में कोइ भेद या विरोध नही है। श्रद्धा और विश्वास के बिना भक्त नहीं बन सकते। जो व्यक्ति परमात्मा में विश्वास रखकर कर्म करता है, उसे न किसी से वैर होता है, न झगड़ा न आशा न भय। उसके अंदर ममता, मद और मोह नहीं है। वह सदा भगवान के गुणों का ही गान करता रहता है। वही परमानन्द को प्राप्त करता है।


इस प्रकार श्री राम जी सारे अयोध्या वासियों को समझाते है। उनके अमृतमय वचन सुनकर, सब उनके चरणों की वन्दना करते हैं। उनके ह्रदय के नेत्र खुल जाते है और उन्हे समझ आ जाता है कि परमात्मा ही हमारे सच्चे गुरू हैं। लौकिक सुख तो भ्रम मात्र है।

माँ के चरणों में सादर प्रणाम,

हरि ॐ।