मानव धर्म का मूल
(Discourses on Purjan Geeta in Hindi)
सुधा बज़ाज़
छ. संभाजी नगर
हरि ॐ,
दिनांक २८, २९, ३० मार्च को माता ने हमें पुरजन गीता के बारे में बताया । भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता में अर्जुन को जो ज्ञान दिया, वही ज्ञान श्री राम जी ने अपने पुरजन यानि अयोध्या वासियों को दिया। यह ज्ञान श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में दोहा क्रमांक ४२ से ४६ तक है। श्री राम जी कहते हैं कि बड़े भाग्य से मनुष्य जीवन मिला है। देवताओं को भी यह शरीर दुर्लभ है । यह वह योनी है जिसमें मनुष्य मुमुक्षत्व प्राप्त करने में समर्थ है, अतः साधक का लक्ष्य होना चाहिए कि वह जहाँ है वहाँ से ऊपर की ओर उठे । भगवान ने अपने विचार किसी पर आरोपित नहीं किये हैं । उन्होंने अपना मत बताया और कहा, "सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।"
हमारे विचारों के अनुरूप ही हमारा विश्व बनता है । सत्य सनातन हमें दिखता ही नहीं है । समष्टि का संचालन ईश्वर करते हैं । हमें सात्विकता के गुणों को अपनाना है । जीवात्मा से ईश्वरत्व ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। माया वशीभूत हो जीव हमेशा भटकता रहता है । माया भ्रम है और हमने इसे सत्य मान लिया है। सद्गुरु रूपी केवट ही हमारी नैया को इस भवसागर से पार करने में समर्थ है। प्रभु कृपा अनुकूल वायु है । मनुष्य ऐसे साधन प्राप्त कर के भी संसार सागर से न तरे तो वह कृतघ्न एवं मंद बुद्धि हैं। ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय ही हमें ईश्वर तक पहुंचने में मदद करता है ।भक्ति का लक्षण बताते हुए भगवान कहते हैं कि भक्ति स्वतंत्र है एवं सब सुखों की खान है परंतु सत्संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते । संत संगति ही संसृति का अंत करती हैं । श्री रामजी कहते है कि मेरा भक्त न किसी से बैर करे, लड़ाई झगड़ा न करे, ना ही आशा रखें , ना भय रखे, और न ही कर्मफल की इच्छा रखे । वह पाप हीन, मान हीन एवं क्रोधहीन हो । मानव धर्म को बताते हुए भगवान कहते हैं कि ममता मोह से रहित हुआ मनुष्य ही परमात्मा स्वरूप को प्राप्त हो सकता है ।
माँ, आप द्वारा दी गई तीन दिवसी पुरजन गीता की व्याख्या ने हमें एक बार फिर से मनुष्य जन्म की महत्वता का ज्ञान कराया। हम श्री राम जी से प्रार्थना करते हैं कि "हे शरणागत के दुःख हरने वाले श्री रामजी! आप ही हमारे शरीर मन बुद्धि के सभी प्रकार से हित करने वाले हैं।" "रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे। रघु नाथाय नाथाय सीताया:पतये नम:।।“