जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
(मेरी समझ के अनुसार)
चतुःश्लोकी भागवत् पर प्रवचन
सुधा बज़ाज़
छ. संभाजी नगर (औरंगाबाद)
हरि ॐ माँ, प्रणाम।
चतुःश्लोकी भागवत् श्रीमद् भागवत् महापुराण के द्वितीय स्कंद से उद्धॄत है। इस ग्रंथ में श्री भगवान ने चार श्लोको में सारे जीवन का सार बताया है। यह विष्णु प्रधान ग्रंथ है। इसमें भगवान ने बताया कि हमें किस प्रकार की सृष्टि करनी है।
हम जिस प्रकार की सृष्टि करते हैं, उसी की स्थिति बनेगी। हम सृष्टि भौतिक दृष्टि से करते हैं। हमारी सृष्टि की उत्पत्ति अज्ञानता एवं अविद्या से होती है। प्रभु की स्थिति बनी रहे ऐसी सृष्टि हमें करनी पड़ेगी । मोक्ष का ध्यान रखते हुए हमें सृष्टि करनी पड़ेगी, क्योंकि स्वरूपतः मैं मुक्त हूँ।
हमारा अहंकार गुणों से तादात्म्य करता है। शास्त्रों से अच्छे विचार लेने से ही हमारी सृष्टि अच्छी बनेगी। भौतिक विज्ञान मोक्ष का साधन नहीं बन सकता। हमें सोचना पड़ेगा कि हमारा हर विचार बन्धनकर्ता है या मुक्ति कारक । स्वभाव से मुक्ति हुई तभी स्वरूप में स्थिति होगी। स्थिति बनने के लिए हमें अष्टलक्ष्मी की आवश्यकता है। स्थिति बनानी है, यह विचार करने के पूर्व हमें शांत होना पड़ेगा। अशांत मन से प्रकट किया विचार हानिकारक है।
भगवान ब्रह्मा जी से कहते हैं कि मैं उस गुप्त ज्ञान को बताने जा रहा हूँ जो विज्ञान सहित है, उसमें रहस्य है। उसे मैं जैसा कहूँ वैसा ही ग्रहण करिए ।मेरा विस्तार, मेरे लक्षण ,मेरे रूप गुण और लीलाऍं इन सब का आप ठीक से अनुभव करिए। सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं था। जहाँ सृष्टि नहीं है वहाँ मैं ही हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है वह भी मैं हूँ। इन श्लोकों में कहा गया है कि जैसे प्राणियों के शरीरों में आकाश आदि पंचमहाभूत प्रवेश करते हैं, वैसे ही मैं उनमें आत्मा के रूप में प्रविष्ट हूँ।
निषेध और अन्वय की पद्धति से सिद्ध होता है कि सर्वदा और सर्वत्र स्थित भगवान ही वास्तविक तत्त्व हैं. भगवान कहते हैं, ब्रह्मा जी आप अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धांत में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे आपकी सृष्टि की रचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा। अगर हम सुषुप्ति में अकर्ता हैं तो जागृत और सपने में अभिमानी क्यों हो जाते हैं? यह सब माया के कारण प्रतीत होता है| हमारे सब अनुभव भूत में रहते हैं। माया का बल प्रचंड है।
भगवान कहते है, [श्रीमद् भगवद् गीता, (७.१४)]
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥"
जो नहीं है वह प्रतीत होता है, इसे पार कर पाना कठिन है।