सत्संग के बिना भक्ति नही मिलती।
(श्रीमद् भगवद् गीता पर प्रवचन)
पुष्पा बगड़िया
तेज़पुर, आसाम
प्रातः श्रीमद् भगवद् गीता के सोलहवें अध्याय की व्याख्या करते हुए, पूज्य माँ पूर्णानंदाजी ने अर्जुन को 'भारत' कहकर सम्बोधित किया। "भा" का मतलब है प्रकाश, और भारत माने जो प्रकाश में रत है। हम सब भारतीय है, माने, हम प्रकाश में हैं, अंधकार में नहीं।
भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जिस व्यक्ति के अंदर दैवी गुण होते हैं, वही प्रकाश में रहता है, तेजस्वी होता है। इसे बढ़ाने के लिए सतत् शास्त्रों का पाठ, अध्ययन, स्वाध्याय करना होगा। एसा व्यक्ति वाद - विवाद, तर्क - कुतर्क में नही फँसता। वह शान्ति से सब काम करता है।
सबसे पहला गुण है अभय - जो डरता नही है। दुसरा गुण है सत्वसंशुद्धि - अपने अन्तःकरण में सात्विक गुणों की प्रधानता होनी चाहिए। रोज शास्त्र पढ़ने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। तीसरा है ज्ञानयोगव्यवस्थिती - ज्ञान योग में पूर्ण रुप से स्थिरता। भगवान के सामने बैठो तो पूरा मन लगाकर बैठो - ध्यान इधर उधर न जाए। तभी मन पूरा मग्न होकर पूजा भजन कर पाता है और मन विषयों में नहीं जाता। चौथी सम्पत्ती है दान। दान सात्विक कैसे हो – भौतिक स्तर पर हम दान दे रहै हैं, पर मानसिक स्तर पर त्याग भाव होना चाहिए - "मै दे रहा हूँ" ये भाव नही। देने वाला परम पिता परमात्मा है। विद्या दान सर्व श्रेष्ठ है। त्याग करने से ही शान्ति मिलती है। अगर मन में विषयों का संग्रह होता रहेगा तो शान्ति नहीं मिलेगी। भगवान कहते है कि, दान देने की प्रवृत्ति ही दैवी गुण है। पाँचवी सम्पत्ती है दम - इन्द्रिय निग्रह- इन्द्रिय निग्रह बहुत आवश्यक है। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को संयम में रखना। योग साधना हमेशा स्वयं पर की जाती है, दूसरों पर नहीं। अनुशासन स्वयं पर करें। इसे दमन भी कहते है। छट्टी सम्पत्ती है यज्ञ - त्याग भाव। अनुशासित जीवन है, तो त्याग भाव बनता है। मानसिक स्तर पर सुख दुःख, और बौधिक स्तर पर मान अपमान व कर्ता भाव का त्याग।
सात्वीं सम्पत्ती है स्वाध्याय। यदी अभ्यास करते करते हम स्वाध्याय ही न करें, तो सब बेकार है। बार बार शास्त्र पढें और गुरू के सानिध्य में समझ ने का प्रयास करना चाहिए। आठवीं सम्पत्ती है तप - तपस्या। हमारे दुर्गुण और कुसंस्कार जलकर भस्म हो जाएँ और अच्छे संस्कार बन जाएँ, ये तपस्या है। जीवन में कठीन समस्याएँ आती हैं, उन सब से तपकर निकलना तपस्या है। नवीं सम्पत्ती है आर्जवम - स्वभाव में सरलता। अर्जुन का नाम आर्जवम शब्द से बना है। जिसके मन में कुटिलता - जटिलता न हो, एक दुसरे के साथ आचरण में सरलता हो, वही आर्जवम का गुण है।
दैवी सम्पत्ती से युक्त पुरुष के अंदर क्षमा करने की प्रवृत्ति होती है। जिस व्यक्ति के अंदर धारणा करने की शक्ति होती है, वही क्षमा कर सकता है। बाहर और भीतर की स्वच्छता आवश्यक है - शौचम। यदी हम अंदर से स्वच्छ नही हैं, तो बाहर भी स्वच्छता नही रखेंगे। फिर बताया अद्रोह। किसी से भी शत्रुभाव न रखें। यदी व्यक्ति में विनम्रता होती है तो वह द्रोह नही करता। न अतिमानिता - दूसरे हमारा सम्मान अधिक से अधिक करें, एसा भाव मन में नही रखना चाहिए। सम्मान उचित है, पर अभिमान न रखें। ह्रीं - विनम्रतापूर्वक और सादगी से जीवन बिताना। अचापलम् - अधिक चपलता न हो। व्यर्थ की चेष्ठा न करें; स्थिरता लाएँ। ये सारे दैवी सम्पत्ती के लक्षण हैं।
अब आसुरी वृत्ती के बारे में भगवान श्री कृष्ण बताते हैं। सबसे पहले दम्भ - दिखावा, मिथ्याचार, अकारण घूमना - फिरना। दर्प - अहंकार। अभिमान - पैसे का, कुल का, विद्या का। पास में कुछ नही, पर फिर भी अभिमान है। क्रोध - अपने अज्ञान के कारण क्रोध आता है। पारुष्य - कठोरता। ये सब आसुरी वृत्तियाँ अज्ञान से ही प्रकट होती हैं। आसुरी वृत्ती वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति का भेद नही समझते। इसलिए उनमें न तो शुद्धि है, न हि श्रेष्ठ आचरण, और न हि सत्य भाषण है। वे कहते हैं, कि संसार केवल भोग भोगने के लिए है। एसे मन्दबुद्धी, दम्भी, अहंकारी, निरीश्वरवादी लोग जगत का अहित करने के लिए ही पैदा होते है। "विषय भोगों की पूर्ति के लिए मैने बहुत धन कमा लिया है और भी कमाऊँगा। मैने कई शत्रुओं को परास्त किया है। मै अपनी सारी ईच्छाएँ पूर्ण करूँगा। मै बड़े परिवार वाला हूँ, मै दान देता हूँ।" इस प्रकार सोचते हुए विषय भोगों में आसक्त रहते हुए, अपवित्र, नरक में गिरते हैं।
माँ ने बताया कि कामनाओं की कभी पूर्ती नही होती। छोटी छोटी कामनाएँ हमें बन्धन में डालती है। काम, क्रोध और लोभ, ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते है कि, जो पुरुष इन तीनों का त्याग करके, शास्त्र विधि से शुद्ध आचरण करता है, वही परम गति को प्राप्त होता है। "अर्जुन तेरे लिए करने योग्य क्या है और क्या नही है, ये शास्त्र ही प्रामाणिक विधि से बताते हैं। इसीलिए तू शास्त्र विधि से नियत कर्म को ही कर। तुम दैवी सम्पत्ती से सम्पन्न हो, इसलिए शोक मत करो।" भगवान कहते है, अपने आप को अनुशासन में रखते हुए, इन वृत्तियों से सुरक्षित रहें। दैवी सम्पद् मुक्ति के लिए है और आसुरी सम्पद् बंधन के लिए है।
माँ के चरणों में सादर प्रणाम,
हरि ॐ।